खुरपका मुहपका रोग (FMD) बचाव एवं उपचार

डा. श्रिया रावत

सहायक प्राध्यापक, पशु चिकित्सा एवं पशु पालन विज्ञान महाविद्यालय, मेरठ

पशु पालन किसानों के लिए आजीविका का प्रमुख साधन है, परन्तु पशुओं मे होने वाली बीमारियां पशुपालन से होने वाले लाभ को कम करने के लिए उत्तरदायी होते है। पशुओं को इन रोगों से सुरक्षित रखना आवश्यक है। यह रोग विषाणु जनित, जीवाणु जनित या परजीवी जनित हो सकते है। इन मे से खुरपका एवं मुँह पका पशुओं में होने वाला एक प्रमुख रोग है। इस बीमारी से वयस्क पशु मे मृत्यु नही होती, पर इससे उत्पादन (दूध, मांस), और काम करने की क्षमता घटने के कारण पशुपालको को काफ़ी आर्थिक नुकसान होता है। एक रिपोर्ट के अनुसार यह रोग पशुपालक को प्रतिवर्ष ४०००-९००० रूपए प्रति पशु की हानि पहुंच सकता है। भारत मे प्रतिवर्ष खुरपका मुँह पका रोग से प्रत्यक्ष रूप से १२०००-१८००० करोड़ रूपए की हानि अनुमानित है। प्रत्यक्ष हानि मे पशुओं के दुग्ध उत्पादन मे कमी, दवाइयों पर व्यय तथा काम करने की क्षमता मे कमी मुख्य है। इसके अतरिक्त अन्य कारणों से यह हानि ३००००-३५००० करोड़ रूपए प्रतिवर्ष पहुंच जाती है। जिसमे पशुओं मे गर्भपात, छोटे पशुओं की मृत्यु, पशुओं मे भूख न लगने के कारण उत्पन्न व्याधियां, मांस वाले पशुओं का निर्यात ना हो पाना इत्यादि प्रमुख है।
इस बीमारी को कई स्थानीय नामो, जैसे मूह-खुर की बीमारी, खुरेडू, चपका इत्यादि से जाना जाता है। यह बीमारी पूरे भारत मे कई प्रकार के विभक्त खुर वाले पालतू और जंगली जनवरो जैसे की गाय, भैंस, भेड़, बकरी, ऊंट, सुअर, हिरन आदि को प्रभावित करती है। यह विषाणु हर उम्र के पशु को प्रभावित करता है। खुर-पका मुंह-पका एक अत्यधिक संक्रामक रोग है, अर्थात् यह कम समय मे बहुत अधिक पशुओ को प्रभावित करता है. प्रभावित पशु के खुर, मुंह और थन पर छाले हो जाते है।


रोग का कारण


यह रोग एक विषाणु एप्थोवायरस द्वारा फैलता है। इस विषाणु के कई प्रकार जैसे ओ, ए, सी, एशिया1 और सॅट 1, 2, 3 होते है। भारत मे मुख्यतः ओ, ए, सी और एशिया 1 बीमारी फैलाते है। रोग का विषाणु पशु के सभी स्राव जैसे लार, दूध, मल, मूत्र, वीर्य, छोड़ी गई सांस आदि मे पाया जाता है। रोगी पशु से सीधे संपर्क; दूषित भूसा, पानी आदि से; पशु के स्राव से दूषित हुए बाडा, बर्तन आदि; दूषित हवा या प्रभावित पशु के संपर्क मे आने वाले मनुष्यो से यह विषाणु प्रसारित होता है। इस रोग का विषाणु खाने द्वारा, साँस लेने से और त्वचा पे चोट से पशु के शरीर मे प्रवेश पता है।

रोग के लक्षण


रोग के लक्षण विषाणु के प्रकार और मात्रा, पशु की प्रजाति, नस्ल, उम्र, रोग प्रतिरोधक क्षमता आदि पे निर्भर करते है। जैसे की नाम से स्पष्ट है यह बीमारी पशु के मुंह और खुर मे होती है। इससे प्रभावित पशु लंबे समय तक कमजोर रहते है और पहले जैसे उत्पादन पर नही आ पाते है। इस रोग के मुख्य लक्षण निम्नवत है

  1. पशु बहुत सुस्त हो जाता है।
  2. बहुत तेज बुखार (104-106 °F)
  3. पशु मे होठ, जीभ, मसूड़ों, खुर के बीच मे छोटे छोटे दाने हो जाते है जो के बाद मे मिल कर बड़े छाले बन जाते है. उसके बाद यह छाले फूट जाते हैं और जानवर को काफ़ी तकलीफ़ होती है।
  4. मुंह से अघिक मात्रा मे रस्सी जैसा लार निकलती है और मुह चलाने पर चप-चप की आवाज़ आती हैं। इसी कारण इसे चपका रोग भी कहते है।
  5. मुंह मे ज़ख्म की वजह से पशु चारा खाना और जुगाली करना बंद कर देता है और बहुत कमजोर हो जाता है।
  6. खुर मे सूजन और दर्द से पशु उसे पटकता रहता है, कभी कभी खुर टूट के निकल भी जाता है।
  7. पशु लंगडाकर चलता है।
  8. दुधारू पशु मे उत्पादन बहुत ज़्यादा गिर जाता है।
  9. सांड़ की कार्य क्षमता भी कम हो जाती है।
  10. इस बीमारी से पशु की प्रजनन क्षमता भी प्रभावित होती है और गर्भवती पशु मे गर्भपात होने की संभावना हो जाती है।
  11. नवजात/ छोटे पशु मे ये मृत्यु का कारण भी बन सकती है।

बचाव


खुरपका मुँह पका रोग के आर्थिक प्रभाव के कारण इस रोग का बचाव अत्यन्त आवश्यक है। इस कारण भारत सरकार द्वारा २००३-०४ से वृहत टीकाकरण अभियान FMDCP चलाया जा रहा है। प्रारम्भ मे यह केवल गाय और महिष वंशीय पशुओं के लिए था। अब २०१९-२०२४ के कार्यक्रम के लिए यह अभियान ७३३ जिलों मे सभी पालतू विभक्त खुरों के पशुओं के लिए चलाया जा रहा है, तथा २०३० तक भारत को FMD मुक्त करने का लक्ष्य है।
-इस बीमारी से बचाव के लिए पशुओं को टीका वर्ष में दो बार अवश्य लगवाना चाहिए। छोटे पशु में पहला टीका 1 माह की आयु में, दूसरा तीसरे माह की आयु तथा तीसरा 6 माह की उम्र में और उसके बाद वर्ष मे दो बार (छह माह के अंतराल पर). पहला टीका फ़रवरी मार्च माह मे और दूसरा सितंबर अक्टूबर माह मे लगवाना चाहिए ।नये पशु को अपनी गौशाला मे लाने से पहले कुछ दिन अलग बाड़े मे रखे।
-पशु बाड़े मे साफ सफाई रखे।
-फार्म मे आगंतुकों तथा आवारा पशुओ (कुत्ते, गाय) का आना जाना प्रतिबंधित होना चाहिये।

उपचार और देखभाल


इस बीमारी का कोई निश्चित इलाज नही है जो भी उपचार दिया जाता है वो लक्षण के आधार पर और घावो को अन्य जीवाणु संक्रमण से रोकने के लिए दिया जाता है ।
1. मुंह और खुर के घाओ को पोटैशियम परमैंगनेट या फिटकरी के पानी से दिन मे 3-4 बार धोना चाहिए।
2. मुंह मे बोरो-ग्लिसरिन का लेप लगाने से पशु को आराम मिलता है।
3. खुर मे कोई एंटीसेप्टिक लेप लगा सकते है।
4. प्रभावित खुर और मुह मे अगर जीवाणु का संक्रमण हो और पस हो तो पशुचिकित्सक से सलाह लेकर उपचार कराये |
5. खुर के घाव तथा मुंह के छाले भरने हेतु और प्रभावित पशु को जल्दी स्वस्थ करने के लिए उसे हीलोजिल (HEALOZIL) पाउडर का एक.एक पाउच (10 ग्राम) सुबह शाम 5 से 7 दिन तक खिलाने से पशु जल्दी स्वस्थ हो जाता है और चारा खाना शुरू कर देता है |


6. यह एक अत्यंत संक्रामक रोग है इसलिये प्रभावित पशु को अन्य पशुओ से दूर रखे।
7. ऐसे पशु के संपर्क मे आने वाले मनुष्य दूसरे स्वस्थ पशु के पास ना जाए।
8. संक्रमित पशु के संपर्क मे आने वाले सामान को कीटनाशक द्रव से सॉफ करे या फिर जला दे।
9. बीमार पशु के बॉडे को फॉरमॅलिन, सोडियम हाइपोक्लॉरिट या सोडियम कार्बोनेट से दिन में दो बार धोये।
10. पशुओं को हरी कोमल घास खिलाएँ।