वाह ! क्या गाय है थारपारकर भी

प्रस्तुति – Agrim Tomar

थारपारकर गाय राजस्थान में जोधपुर और जैसलमेर में मुख्य रूप से पाई जाती है। इस नस्ल की गाय भारत की सर्वश्रेष्ठ दुधारू गायों में गिनी जाती है। इस गाय का उत्पत्ति स्थल ‘मालाणी’ (बाड़मेर) है। राजस्थान के स्थानीय भागों में इसे ‘मालाणी नस्ल’ के नाम से जाना जाता है। थारपारकर गौवंश के साथ प्राचीन भारतीय परम्परा का इतिहास भी जुडा हुआ है.

उदगम स्थान: इस नस्ल का उदगम स्थान पश्चिम राजस्थान और सरहद पार सिन्ध पाकिस्तान है. भारत में यह गाय की नस्ल मुख्यत बाड़मेर, जैसलमर, जोधपुर, कच्छ क्षेत्रों में पाई जाती है. इसे ग्रे सिंधी, वाइट सिंधी और थारी के नाम से भी जाना जाता है. यह नस्ल दुधारू होने के साथ साथ इनके बैल खेती व अन्य कार्य में इस्तेमाल किए जाते है | अतः इस नस्ल को दोहरे उद्देश्य वाली नस्ल भी कहा जाता है इनके दूध में 5 फ़ीसदी वसा पायी जाती है |

नस्ल की विशेषताएं: 

  • पशु का रंग साधारणतया सफेद या धूसर होता है तथा इसकी पीठ के ऊपर हल्के धूसर (मटमैले, Grey) रंग की धारियां होती है।
  • इसका सिर मध्यम आकार का माथा चौड़ा तथा ललाट उभरा हुआ होता है।
  • इसकी सींग मध्यम लंबाई के मोटे होते हैं |
  • इसके कान लंबे चौड़े होते हैं तथा कान के अंदर की त्वचा हल्की पीली होती है।
  • इसकी पूंछ लंबी, पतली तथा (FETLOCK JOINT) तक लटकी हुई होती है।
  • औसत शरीर भार नर 480-500 किलोग्राम , मादा 400-450 किलोग्राम
  • औसत दूध उत्पादन – 1600-2500 लीटर
थारपारकर नस्लीय गौवंश की काफ़ी मांग

इसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बहुतअच्छी होती है. ये शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से उत्तम होने के साथ ही सबसे कम खर्च में सर्वाधिक दूध देने वाली गाय मानी जाती है. शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से उत्तम होने के साथ ही सबसे कम खर्च में सर्वाधिक दूध देने वाली यह गाय क्षेत्रीय ग्रामीणों के लिए जीवन निर्वाह का सम्बल है. थारपारकर नस्लीय गौवंश की पशुपालन व डेयरी संस्थानों में इसकी काफ़ी मांग बनी रहती है.

आहार व्यवस्था: ये जानवर सूखे और चारे की कमी की स्थिति के दौरान छोटे जंगली वनस्पतियों पर भी फल-फूल सकते हैं. आहार के रूप में यह नस्ल कम और सूखा चारा खा कर भी उत्पादन देती है किन्तु संतुलित आहार व्यवस्था से इसकी उत्पादन क्षमता बढ़ जाती है. इस नसल की गायों को जरूरत के अनुसार ही खुराक दें। फलीदार चारे को खिलाने से पहले उनमें तूड़ी या अन्य चारा मिला लें। ताकि अफारा या बदहजमी ना हो।
इसे  मक्का, जौं, ज्वार, बाजरा, गेहूं, जई की चोकर, मूंगफली, सरसों, तिल, अलसी से तैयार खल, हरे चारे के रूप में बरसीम रिजका, लोबिया, ज्वार, मक्की, जई, बाजरा, नेपियर घास, सुडान  सुडान घास और सूखे चारे के रूप में बरसीम की सूखी घास, रिजका की सूखी घास, जई की सूखी घास, ज्वार और बाजरे की कड़बी, घास, जई आदि दिया जा सकता है. पशु को उसका आहार शरीर भार के अनुसार दिया जात है किन्तु ग्याभिन पशु को संतुलित आहार अवश्य देना चाहिए |

रखरखाव की आवश्यकता: पशुओं को तेज धूप, बारिश, ठंड, ओले और परजीवी से बचाने के लिए शैड की आवश्यकता होती है. सुनिश्चित करें कि चुने हुए शैड में साफ हवा और पानी की सुविधा होनी चाहिए. पशुओं की संख्या के अनुसान भोजन के लिए जगह बड़ी और खुली होनी चाहिए, ताकि वे आसानी से भोजन खा सकें. पशुओं के अवशिष्ट पदार्थ जैसे गोबर, गौमूत्र की निकास के लिए 30-40 सेमी. चौड़ी और 5-7 सेमी. गहरी नालिया बनानी चाहिए. वैसे तो इस पशु कच्चे स्थान पर भी रख सकते है किन्तु पक्के फर्श में रोग और परजीवी लगने की संभावना बहुत कम हो जाती है और प्रबंधन के लिए भी आसानी होती है |

समय पर लगाए रोगरोधी टीके:  बछड़ों को 6 महीने के हो जाने पर पहला टीका ब्रूसीलोसिस का लगवाना चाहिए. फिर एक महीने बाद आप खुरपक्का-मुहपक्का रोग से बचाव के लिए टीका लगवाएं और गलघोटू रोग से बचाव का भी टीका लगवाएं. एक महीने के बाद लंगड़े बुखार का टीका लगवाएं. बड़ी उम्र के पशुओं की हर तीन महीने बाद डीवॉर्मिंग करें. बछड़े के एक महीने से पहले सींग ना दागें. एक बात का और ध्यान रखें कि पशु को बेहोश करके सींग ना दागें इलैक्ट्रोनिक हीटर से ही सींग दागें |

Advocate Pulkit Tomar

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पहले मुख्यतः जर्सी तथा उसके बाद एच. एफ. गाय पालने का प्रचलन था | किंतु इन विदेशी नस्लों में रोगों की अधिकता तथा रखरखाव में परेशानी के कारण अब पशु पालकों का रुझान देसी नस्लों की ओर हो गया है | थारपारकर गाय इस क्षेत्र में विशेष लोकप्रिय हो रही है | जिला गाजियाबाद के सिकरोड क्षेत्र के प्रगतिशील पशुपालक एडवोकेट पुलकित तोमर से पशु पत्रिका टीम ने इस बारे में बात की | श्री पुलकित ने बताया कि पहले वे अन्य प्रजातियों की गाय रखते थे किंतु जब से उन्होंने थारपारकर गायों को अपने डेयरी फार्म में शामिल किया है तब से उनका पशु चिकित्सा खर्च तथा मेंटेनेंस खर्च बहुत कम हो गया है | सबसे बड़ी बात है कि यह थारपारकर गाय पूरे  ब्यांत में लंबे समय तक दूध देती हैं तथा मात्र डेढ़ से दो माह इनका दूध छोड़ना पड़ता है | थारपारकर ब्रीड में ग्याभिन ना रुकने की समस्या भी नहीं है | वर्ष 2019 में सूरतगढ़ स्थित केंद्रीय पशु प्रजनन फार्म में थारपारकर नस्ल की एक गाय (नंबर 8082) नीलामी में ₹230000 में बिकी थी | इससे पता चलता है कि थारपारकर गाय किस प्रकार पशुपालकों की पहली पसंद बनती जा रही है |